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ये ममता बनर्जी की कविताएँ हैं; ममता बनर्जी, जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और 'फ्रायर ब्रांड' नेता, जिन्हें उनके दो टूक लहजे और अक्सर गुस्से के लिए भी जाना जाता है।इन कविताओं को पढक़र आश्चर्य नहीं होता। दरअसल सार्वजनिक जीवन में आपादमस्तक डूबे किसी मन के लिए बार-बार प्रकृति में सुकून के क्षण तलाश करना स्वाभाविक है। लेकिन ममता जी प्रकृति की छाँव में विश्राम नहीं करतीं, वे उससे संवाद करती हैं। प्रकृति के रहस्यों को सम्मान देती हैं, और मनुष्य मात्र से उस विराटता को धारण करने का आह्वान करती हैं जो प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है।उनकी एक कविता की पंक्ति है 'अमानवीयता ही है सभ्यता की नई सज्जा'-यह उनकी राजनीतिक चिन्ता भी है, और निजी व्यथा भी। और लगता है, इसका समाधान वे प्रकृति में ही देखती हैं। सूर्य को सम्बोधित एक कविता में कहा गया है 'पृथ्वी को तुम्हीं सम्हाल रखोगे / मनुष्यता को रखो सर्वदा पहले / जाओ मत पथ भूल'।वे प्रकृति में जैसे रच-बस जाती हैं। उनका संस्कृति-बोध गहन है और मानवीय संवेदना का आवेग प्रखर। 'एक मुट्ठी माटी' शीर्षक कविता में जैसे यह सब एक बिन्दु पर आकर जुड़ जाता है-'एक मुट्ठी माटी दे न माँ रे / मेरा आँचल भरकर / मीठापन माटी का सोने से शुद्ध / देखेगा यह जग जुडक़र / थोड़ा-सा धन-धान देना माँ / लक्ष्मी को रखूँगी पकड़ / नई फसल से नवान्न करूँगी / धान-डंठल सर पर रख।'कहने की आवश्यकता नहीं कि इन कविताओं में हम एक सफल सार्वजनिक हस्ती के मन के एकांत को, और मस्तिष्क की व्याकुलता को साफ-साफ शब्दों में पढ़ सकते हैं।
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