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Bøker av Suryabala

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  • av Suryabala
    504,-

    प्रवासी भारतीय होना भारतीय समाज की महत्वाकांक्षा भी है, सपना भी है, केरियर भी है और सब कुछ मिल जाने के बाद नॉस्टेल्जिया का ड्रामा भी । लेकिन कभी-कभी वह अपने आप को, अपने परिवेश को, अपने देश और समाज को देखने की एक नयी दृष्टि का मिल जाना भी होता है । अपनी ज़न्मभूमि से दूर किसी परायी धरती पर खड़े होकर वे जब अपने आप को और अपने देश को देखते हैं तो वह देखना बिलकुल अलग होता है । भारतभूमि यर पैदा हुए किसी व्यक्ति के लिए यह घटना और भी ज्यादा मानीखेज इसलिए हो जाती है कि हम अपनी सामाजिक परम्पराओं, रूढियों और इतिहास की लम्बी गूंजलकों में घिरे और किसी मुल्क के वासी के मुकाबले कतई अलग ढंग से खुद को देखने के आदी होते हैं । उस देखने में आत्मालोचन बहुत कम होता है । वह धुंधलके में घूरते रहने जैसा कुछ होता है । विदेशी क्षितिज से वह धुंधलका बहुत झीना दीखता है और उसके पर बसा अपना देश ज्यादा साफ़ । इस उपन्यास में अमेरिका-प्रवास में रह रहे वेणु और मेधा खुद को और अपने पीछे छूट गई जन्मभूमि को ऐसे ही देखते हैं । उन्हें अपनी मिटटी की अबोली कसक प्राय चुभती रहती है-वे अपने परिवार जनों और उनकी स्मृतियों को सहेजे जब स्वदेश प्रत्यावृत्त होते हैं तो उनकी परिकर-परिधि में आए जन उनके रहन-सहन, आत्मविश्वास से प्रभावित होते हैं, किन्तु वेणु और मेधा के दु ख, उदासी और अकेलापन नेपथ्य में ही रहते हैं । नयी पीढी की आकांक्षाओं में सिर्फ और सिर्फ बहुत सारा धनोपार्जन ही है ताकि एक बेहत्तर जीन्दगी जी सके जबकि अमेरिका गए अनेक प्रवासी डॉलर के लिए भीतर ही भीतर कई संग्राम लड़ते हैं । कैरम क्री गोटियों को छिटका देनेवाली स्थितियाँ हैं, पर निर्मम चाहतें ! वरिष्ठ कथाकार सूर्यबाला का यह वृहत् उपन्यास एक विशाल फलक पर देश और देश के बाहर को उजागर करता है । इसका वितान जितना विस्तृत है उतना ही गा

  • av Suryabala
    377,-

  • av Suryabala
    363,-

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