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Bøker av Virendra Jain

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  • av Virendra Jain
    377,-

    जीवन में हम जो पाना चाहते हैं उसे पाने के लाखों प्रयास करते ही हैं। प्रायः उनका परिणाम सुखद होता है। ठीक इसी मुकाम पर पहुँचकर हम वह सब भूल जाते हैं जिसके चलते वहाँ तक पहुँचना संभव हुआ। इससे उलट हमारी लाख कोशिशों के बाद भी जब कभी हमारा इच्छित प्राप्त नहीं होता, तब! तब वह कवायद ताउम्र ऐसे याद रही आती है जैसे कल ही की बात हो। जीवन में सायास या अनायास उपकृत होते रहना भी नियति है। कभी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं जो बुद्धि और विवेक को संज्ञा-शून्य कर देती हैं। सब कुछ ठहर-सा जाता है। कुछ भी चीह्न पाना कठिन हो जाता है। कालांतर में वे स्थितियाँ ही पूछती हैं-बताओ तो हम क्या हैं! क्यों हैं! हमारी जो परिणति हुई, वही अपरिहार्य थी! क्षणिक उन्माद का, आवेग का प्रतिफल तो नहीं थी! वीरेंद्र जैन ने इन संस्मरणात्मक आख्यानों में कहीं इसका उत्तर तलाशने का प्रयास किया है तो कहीं उत्तर देने का।

  • av Virendra Jain
    391,-

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