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  • av Ashok Vajpeyi
    423,-

  • av Ed Ramsharan Joshi
    423,-

    Contributed articles on various aspects of Indian diaspora.

  • av Badal Sarkar
    383,-

  • av Sarvendra Vikram
    397

  • av Gopal Ray
    503,-

    गोपाल राय हिन्दी कथा साहित्य के प्रतिष्ठित विश्लेषक और प्रामाणिक इतिहासकार हैं। हिन्दी कहानी के सुदीर्घ इतिहास के प्रत्येक पक्ष पर उन्होंने विस्तार से लिखा है। 'हिन्दी कहानी का इतिहास' शीर्षक से ये उद्भव से लेकर अब तक की हिन्दी कहानी की रचना-यात्रा को लिपिबद्ध कर रहे हैं। इस पुस्तक के दो खंड प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत पुस्तक इसी महत्त्वपूर्ण योजना का तीसरा खंड है। पहले खंड में 1900-1950 ई. तक की हिन्दी कहानी का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। दूसरे खंड में 1951-1975 की हिन्दी कहानी का लेखा-जोखा है। इस तीसरे खंड में 1976 से 2000 के बीच विकसित हिन्दी कहानी का व्यवस्थित इतिहास है। लेखक के अनुसार, 'इस अवधि में जो कहानी-साहित्य रचा गया, उसकी सीमाएँ तो हैं, पर उसका आलेखन और मूल्यांकन कम जरूरी नहीं है। इक्कीसवीं सदी में जो कहानी-साहित्य रचा जा रहा है, उसकी नींव के रूप में इसका विवेचन आवश्यक है।' पुस्तक की खास विशेषता यह भी है कि कहानी की सक्रियताओं के साथ लेखक ने उन विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। जिनका प्रभाव अनिवार्य रूप से रचनाशीलता पर पड़ता है, तथ्यों की प्रामाणिकता और प्रवृत्तियों के विश्लेषण की क्षमता इसे विशेष रूप से उल्लेखनीय कृति बनाती है। हिन्दी कहानी के विकासेतिहास में रुचि रखने वाले पाठकों, शोधार्थियों व लेखकों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण कृति।

  • av Arun Bholey
    410

  • av Suryakant Tripathi 'Nirala'
    397

  • av Krishna Kumar
    397

    यह पुस्तक लड़कियों के मानस पर डाली जाने वाली सामाजिक छाप की जांच करती है । वैसे तो छोटी लड़की को बच्ची कहने का चलन है, पर उसके दैनंदिन जीवन की छानबीन ही यह बता सकती है कि लड़कियों के सन्दर्भ में 'बचपन' शब्द की व्यंजनाएँ क्या हैं । कृष्ण कुमार ने इन व्यंजनाओं की टोह लेने के लिए डॉ परिधियाँ चुनी हैं । पहली परिधि है घर के सन्दर्भ में परिवार और बिरादरी द्वारा किए जाने वाले समाजीकरण की । इस परिधि की जांच संस्कृति के उन कठोर और पीने औजारों पर केन्द्रित है जिनके इस्तेमाल से लड़की को समाज द्वारा स्वीकृत औरत के सांचे में ढाला जाता है । दूसरी परिधि है शिक्षा की जहाँ स्कूल और राज्य अपने सीमित दृष्टिकोण और संकोची इरादे के भीतर रहकर लड़की को एक शिक्षित नागरिक बनाते हैं । लड़कियों का संघर्ष इन डॉ परिधियों के भीतर और इनके बीच बची जगहों पर बचपन भर जारी रहता है । यह पुस्तक इसी संघर्ष की वैचारिक चित्रमाला है ।.

  • av Soma Bandopadhyay
    450

    Comparative study on the life and fictional works of Phaònåiâsvaranåatha Reònu, 1921-1977, Hindi author and Tåaråaâsaçnkara Bandyopåadhyåaçya, 1898-1971, Bengali author.

  • av Malvender Jit Singh Waraich
    476

    यह पुस्तक 'भगत सिंह को फांसी-1' का ही दूसरा भाग है ! इसमें लाहोर साजिश केस के दौरान हुई 457 गवाहियों में से महत्तपूर्ण गवाहियों के तो पूर्ण विवरण दिए गए हैं जबकि शेष गवाहियों के तथ्य-सार दिए गए हैं ! शहीद सुखदेव ने इस दस्तावेज का बारीकी से अध्ययन किया था और उनके द्वारा अंकित की गई टिप्पणियों का उल्लेख सम्बंधित गवाहियों के ब्योरे में किया गया है ! यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक है कि इस एतिहासिक दस्तावेज को पहली बार प्रकाशित किया जा रहा है, जिसके द्वारा पाठको को अनेक विचित्र तथ्य जानने का अवसर प्राप्त होगा ! जिक्र योग्य है कि ये गवाहियों विशेष ट्रिब्यूनल के समक्ष 5 मई, 1930 से 26 अगस्त, 1930 तक हुई थीं, जबकि इससे पूर्व 10 जुलाई, 1929 से 3 मई, 1930 तक मुकदमा विशेष मजिस्ट्रेट की अदालत में चला थ

  • av Manjul Bhagat
    423,-

  • av Mohanlal Bhaskar
    410

    मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था - मोहनलाल भास्कर जासूसी को लेकर विश्व की विभिन्न भाषाओँ में अनेक सत्यकथाए लिखी गई हैं, जिनमे मोहनलाल भास्कर नमक भारतीय जासूस द्वारा लिखित अपनी इस आपबीती का एक अलग स्थान है ! इसमें 1965 के भारत-पाक युध्ह के दौरान उसके पाकिस्तान-प्रवेश, मित्रघात के कारण उसकी गिरफ़्तारी और लम्बी जेल-यातना का यथातथ्य चित्रण हुआ है! लेकिन इस कृति के बारे में इतना ही कहना नाकाफी है क्योंकि यह कुछ साहसी और सूझबूझ-भरी घटनाओं का संकलन मात्र नहीं है, बल्कि पाकिस्तान के तत्कालीन हालत का भी ऐतिहासिक विश्लेषण करती है! इसमें पाकिस्तान के तथाकथित भुत्तोवादी लोक्तान्रा, निरंतर मजबूत होते जा रहे तानाशाही निजाम तथा धार्मिक कठमुल्लावाद और उसके सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों को उधान्दने के साथ-साथ भारत-विरोधी षड्यंत्रों के उन अन्तराष्ट्रीय सूत्रों की भी पड़ताल की गई है, जिसके एक असाध्य परिणाम को हम 'खालिस्तानी' नासूर की शक्ल में झेल रहे हैं! उसमें जहाँ एक और भास्कर ने पाकिस्तानी जेलों की नारकीय स्थति, जेल-अधिकारीयों के अमानवीय व्यव्हार के बारे में बताया है, वहीँ पाकिस्तानी अवाम और मेजर अय्याज अहमद सिप्रा जैसे व्यकी के इंसानी बर्ताव को भी रेखांकित किया है !

  • av Abdul Bismillah
    503,-

    Collection of stories of a Hindi author; previously publsihed.

  • av Nandkishore Naval
    397

  • av Pawan Kumar Verma
    423,-

  • av Kumar Mithilesh Prasad Singh
    410

  • av Akhilesh
    410

    Kahaniyan Rishton Ki: Dada-Dadi, Nana-Nani

  • av Akhilesh
    410

  • av Giriraj Kishore
    410

  • av Prabha Thakur
    423,-

  • av Ravindranath Thakur
    397

    राजर्षि रचना-क्रम में राजर्षि (1885) रवीन्द्रनाथ का दूसरा उपन्यास है। इसके कथानक का केन्द्रीय-सूत्र त्रिपुरा के इतिहास से ग्रहण किया गया है और रचनाकार ने अपनी कल्पना व नवीन उद्भावना शक्ति के सहारे उसे उपन्यास का रूप दिया है। सारी घटनाएँ गोविन्दमाणिक्य और रघुपति के चारों ओर घूमती हैं। ये दोनों पात्र वस्तुत दो अलग प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं। नक्षत्रमाणिक्य, बिल्वन ठाकुर, जयसिंह, शाह शुजा, केदारेश्वर अपने-अपने ढंग से उपन्यास के कथानक में झरनों, नदियों, अन्तरीपों, गह्वरों के समान दृश्य-अदृश्य दशाओं का निर्माण करते हैं। मन को सबसे अधिक झकझोरते हैं हासि और ताता। दोनों बालक लक्ष्य बेधने में लेखक की सबसे अधिक सहायता करते हैं। राजर्षि में रवीन्द्रनाथ का कवि रूप भी है तथा उनकी सांस्कृतिक व लोक-चेतना भी। अनुवाद में मूल कथ्य के साथ इनकी रक्षा की चेष्टा भी की गई है। आवश्यकतानुसार पाद-टिप्पणियाँ देकर बंगाली-समाज की परम्पराओं को सबके लिए सुलभ करने का प्रयास किया गया है। सामग्री की प्रामाणिकता के सन्दर्भ में यह अनुवाद पाठकों को निराश नहीं करेगा।.

  • av Leeladhar Jagudi
    410

    जितने लोग उतने प्रेम उम्र का 70वाँ पड़ाव पार करने के बाद लीलाधर जगूड़ी के 53 वर्ष के काव्यानुभव का नतीजा है उनका यह 12वाँ कविता संग्रह 'जितने लोग उतने प्रेम' । अपने हर कविता संग्रह में जगूड़ी अपनी कविता के लिए अलग-अलग किस्म के नए गद्य का निर्माण करते रहे हैं । उनके लिए कहा जाता है कि वे गद्य में कविता नहीं करते बल्कि कविता के लिए नया गद्य गढ़ते हैं । यही वजह है कि उनकी कविता में कतिपय कवियों की तरह केवल कहानी नहीं होती, न वे कविता की जगह एक निबन्/ा लिखते हैं । उन्होंने एक जगह कहा है कि ''कहानी तो नाटक में भी होती है पर वह कहानी जैसी नहीं होती । अपनी वर्णनात्मकता के लिए प्रसिद्ध वक्तव्य या निबन्/ा, नाटक में भी होते हैं पर उनमें नाट्य तत्त्व गुँथा हुआ होता है । वे वहाँ नाट्य वि/ाा के अनुरूप ढले हुए होते हैं । कविता में भी गद्य को कविता के लिए ढालना इसलिए चुनौती है क्योंकि 'तुक' को छन्द अब नहीं समझा जाता । आज कविता को गद्य की जिस लय और श्वासानुक्रम की जरूरत है, वही उसका छन्द है । तुलसी ने कविता को 'भाषा निबन्धमतिमंजुलमातनोति' कहा है । अर्थात भाषा को नए ढंग से बाँधने का उपक्रम कर रहा हूँ । बोली जानेवाली भाषा भी श्वासाधारित है । अत% भाषा बाँधना भी हवा बाँधने की तरह का ही मुश्किल काम है ।'' लीलाधर जगूड़ी की कविता की यह भी विशेषता है कि वे अनुभव की व्यथा और घटनाओं की आत्मकथा इस तरह पाठक के सामने रखते हैं कि उनका यह कथन सही लगने लगता है कि-'कविता का जन्म ही कथा कहने के लिए और भाषा में जीवन नाट्य रचने के लिए हुआ है ।' वे अक्सर कहते हैं कि 'कविता जैसी कविता से बचो ।' 24 वर्ष की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह आ गया था । 1960 से यानी कि 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी उनकी कविता का गद्य समकालीन साहित्य की दुनिया में किसी न किसी नए संस्पर्श के लिए प्र

  • av Shriram Tripathi
    450

  • av Abdul Bismillah
    397

  • av Nandkishore Naval
    410

    Critical study on the works of Råamadhåaråi Siòmha Dinakara, 1908-1974, Hindi poet.

  • av Mahadevi Verma
    410

    सात भूमिकाएँ छायावाद की यशस्वी रचनाकार महादेवी वर्मा का लेखन किसी न किसी रूप में पाठकों व आलोचकों को आन्दोलित करता आया है । कभी उनकी रचनाओं में उनके जीवन के बिखरे सूत्र रेखांकित किए जाते हैं तो कभी उनके जीवन में रचनाओं के स्रोत खोजे जाते हैं । महादेवी द्वारा लिखित प्रत्येक शब्द स्वयं को /यान से पढ़े जाने का आग्रह करता है । 'सात कहानियाँ' में रश्मि, सां/यगीत, आधुनिक कवि, दीपशिखा, बंग-दर्शन, सप्तपर्णा एवं हिमालय कविता-संग्रहों की भूमिकाएँ हैं । महादेवी वर्मा लिखित इन भूमिकाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है । ये भूमिकाएँ उनकी तत्कालीन मन%स्थिति को प्रकट करने के साथ उनके समग्र लेखन पर एक 'अन्त साक्ष्य' की भाँति हैं । 'सात भूमिकाओं' के सम्पादक दूधनाथ सिंह का सम्पादकीय 'छायावाद व्यथा का सवेरा' अत्यन्त विचारोत्तेजक है । अपनी विशिष्ट 'तर्कसंगत पद्धति' से दूधनाथ सिंह ने महादेवी के रचनाकर्म को विवेचित किया है । उनके वक्य स्पष्ट, पारदर्शी व निर्भ्रान्त हैं, 'महादेवी की आलोचनाएँ शब्द-अलंकृति अधिक हैं, आलोचनाएँ कम । उनका सारा वैचारिक गद्य-लेखन लगभग ऐसा ही है । उनमें तर्क और विश्लेषण का अभाव है । अपनी हर अगली बात के लिए महादेवी तर्क की जगह कोई प्रतीक-बिम्ब ढूँढ़ने लगती हैं ।' दूधनाथ सिंह के सम्पादकीय के प्रकाश में महादेवी की इन सात भूमिकाओं को पढ़ना एक आलोचनात्मक अनुभव है । तब और भी जब महादेवी के चुटीले 'सुरक्षात्मक वाक्य' उनकी प्रत्येक भूमिका में हैं । 'रश्मि' संग्रह की 'अपनी बात' का पहला ही वाक्य, 'अपने विषय में कुछ कहना प्राय बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि अपने दोष देखना अपने आपको अप्रिय लगता है और इनको अनदेखा कर जाना औरों को--- ।' एक संग्रहणीय पुस्तक

  • av Mukesh Kumar
    397

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