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  • av Gustave le Bon
    216,-

  • av Ernest Holmes
    277

  • av F. Scott Fitzgerald
    264

  • av Sinclair Lewis
    423,-

  • av A. W. Tozer
    216,-

  • av Friedrich Wilhelm Nietzsche
    251

  • av Ananya Das
    140 - 287,-

  • av 2337&2377. &2352&2306&2332&2344&
    264

    *वाल्मीकि रामायण वर्णित सामाजिक व्यवस्था की प्रासंगिकता* महर्षि वाल्मीकि अयोध्यापति श्रीराम के समकालीन थे अतः उनका ग्रन्थ 'रामायण' तत्कालीन समाज का सच्चा दर्पण माना जाता है । प्रस्तुत शोध - प्रबंध में 'रामायण' में वर्णन की गयी सामाजिक व्यवस्था का सप्रमाण वर्णन करते हुए आज के युग में उसकी प्रासंगिकता की विवेचना की गयी है । यह पूर्वांचल विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग द्वारा अनुमोदित संस्कृत साहित्य के क्षेत्र का प्रथम शोध प्रबंध है जिसमें राम कथा के विभिन्न अनछुए प्रसंगों को पाठकों के सम्मुख लाने का स्तुत्य प्रयास किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ जन मानस में व्याप्त विभिन्न भ्रांतियों तथा शंकाओं का यथासम्भव यथोचित समाधान भी प्रस्तुत किया गया है ।

  • av 2337&2377. &2352&2306&2332&2344&
    207,-

    मर्डर मिस्ट्री जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है यह स्वयं में एक हत्या का रहस्य समेटे हुए है । ऐसा मर्डर जिसके कारण या उद्देश्य का कोई पता नहीं । क़ातिल कौन है, एक है या एक से अधिक सब कुछ अज्ञात है । अथक प्रयत्न करने पर भी स्थानीय पुलिस केस हल करने में नाकाम रहती है । ऐसी परिस्थिति में कैसे एक प्राइवेट जासूस अप्रत्याशित रूप से उस केस से जुड़ जाता है और फिर अपनी ही उत्सुकता शांत करने के लिये अपनी बुद्धिमत्ता तथा चतुराई से उस मर्डर मिस्ट्री को हल करता है इसी का इस सम्पूर्ण उपन्यास में ताना बाना बुना गया है । उपन्यास का कथानक अत्यंत रोचक है तथा अपने रहस्य को समय से पूर्व नहीं खुलने देता । यही तो होती है जासूसी उपन्यास के पाठक की सर्वप्रथम शर्त । प्रस्तुत पुस्तक आज के सस्ते उपन्यासों से सर्वथा भिन्न है । सम्पूर्ण उपन्यास की भाषा साहित्यिक झलक लिये हुए तथा मर्यादित है

  • av 2337&2377. &2352&2306&2332&2344&
    181,-

    एक हवेली नौ अफ़साने अपने रिटायरमेंट के बाद प्राप्त अपनी समस्त पूँजी से उपन्यास की नायिका एक आशियाना खरीदने की इच्छा करती है । इसी प्रयास में उसे एक खूबसूरत इमारत का दीदार होता है जिसे लोग हवेली कहते हैं । हवेली से सम्बंधित सभी प्रवादों तथा अफ़वाहों की उपेक्षा करते हुए वह हवेली खरीदने का निर्णय ले लेती है । तब.... क्या होता है तब ? क्या उसका निर्णय सही था ? क्या उस हवेली से जुड़ी कहानियाँ अफ़वाह मात्र थीं ? क्या हुआ जब उस ने उस इमारत में कुछ दिन रहने का निर्णय लिया ..... ?

  • av &23, &2340, &2367, m.fl.
    216,-

    अभी भी वक़्त है कुछ बिगड़ा नहीं है अभी भी चलो कुछ जाग जाएं अगर सोते रहे अभी भी तो हो सकता है कि कभी संभला ना जाये इसलिए चलो कुछ जाग जाएं बहुत हो चुकी देर जागने में हो गई दोपहर चलो कुछ जाग जाएं यूँ ही चलता रहा अगर, सफ़र ख़त्म हो जाएगा बिना जागे ही इसलिए चलो कुछ जाग जाएं तुम जागे तभी दूसरों को भी जगा पाओगे सोते रहे अगर तो कभी संभल न पाओगे इसलिए चलो कुछ जाग जाएं रास आता है बड़ा सोते रहना बस सोते ही चले जाना पर अब वक़्त है कि चलो कुछ जाग जाएं ये पुस्तक याद दिलाती है एक एहसास कि जीत तब तक़ अधूरी है जब तक सब साथ न हों।

  • av &2366, &23, &2352, m.fl.
    175,-

    प्रस्तुत किताब में जिंदगी के वर्तमान समय की महामारी में लिखी गई कुछ कविताएं सम्मिलित की गई है। इसमें प्यार है तो सलाह भी, हास्य है तो गम्भीरता भी। प्रकृति है तो मनुष्य की हिम्मत मापने के भाव हैं तो मनोबल को बढ़ावा भी। यह एक पूर्ण अभिभूत कविताओं का संग्रह है। कोई कविता हमें वर्तमान से रूबरू कराती है तो कोई आपको बुलंदियों को छूने का हौसला देती है। सरकार गोरखपुरी की भाषा जन सामान्य की भाषा है। उनकी शैली भावात्मक और यथार्थ से परिचय कराती हैं। इनकी कविताएं जमीन और प्रकृति से जुड़ाव महसूस कराती हैं।

  • av &2379, 2350, &2361, m.fl.
    216,-

    'नूर की बूंदें' मोहसिन आफ़ताब की शायरी का मज्मूआ है। ऐसा मज्मूआ जिसमें उनकी संजीदा सोच और उनकी संवेदनशीलता का मुग्धकारी अन्दाज़ मिलता है। मोहसिन आफ़ताब की शायरी एक औद्योगिक नगर की शहरी सभ्यता में जीनेवाले एक शायर की शायरी है। बेबसी और बेचारगी, भूख और बेघरी, भीड़ और तन्हाई, वंदगी और जुर्म, नाम और गुमनामी, पत्थर से फुटपाथों और शीशे की ऊँची इमारतों से लिपटी तहजीब न सिर्फ़ शायर की सोच बल्कि उसकी ज़बान और लहज़े पर भी प्रभावी होती है। मोहसिन आफ़ताब की शायरी एक ऐसे इनसान की भावनाओं की शायरी है, जिसने वक़्त के अनगिनत रूप अपने भरपूर रंग में देखे हैं, जिसने ज़िन्दगी के सर्द-गर्म मौसमों को पूरी तरह महसूस किया है, जो नंगे पैर अंगारों पर चला है, जिसने ओस में भींगे फूलों को चूमा और हर कड़वे-मीठे जज़्बे को चखा है, जिसने नुकीले से नुकीले अहसास को छूकर देखा है और जो अपनी हर भावना और अनुभव को बयान किया है।

  • av &23, &2344, &2325, m.fl.
    175,-

    वर्तमान तुष्टिकारी माहौल में यह पुस्तक एक आम आस्थावान भारतीय की व्यथा का दर्पण है और पाश्चात्य सभ्यता के अनुयायियों द्वारा सनातन के प्रतिमानों पर किये जा रहे अनवरत प्रहार के एवज़ में एक प्रत्युत्तर है। आज कल के सम्भ्रान्त, शिक्षित और प्रगतिशील युवा को अपनी भारतीय संस्कृति में सिर्फ़ खामियाँ दिखती हैं चाहे वह परम्परा हो,जाति सह आजीविका हो, पहनावा हो या चिकित्सा पद्धति। यह प्रयास उन कच्ची निगाहों के लिये उहापोह का कुहरा खत्म करेगा ये आशा है। आपके विचारों, आलोचनाओं, प्रशंसा या विरोध के स्वरों का स्वागत है इसके लिये Email - anjankumarthakur@yahoo.co.in पर आप अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर सकते हैं।

  • av &2309, &23, &2367, m.fl.
    229

    अनेक ऐसे लेख हैं जिनमें महज रिपोर्टिंग नहीं है बल्कि प्रामाणिक जानकारियों और आंकड़ों के साथ विश्लेषण भी है। ऐसा विश्लेषण जो उस विषय की दुनिया में पूरी विश्वसनीयता से ले जाता है साथ ही पाठक की स्मृति का हिस्सा हो जाता है अनिल अनुपके ये लेख उनकी रचनात्मक नेकनियति का एक सकारात्मक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि प्रिंट मीडिया में सरोकार के साथ संप्रेषण की सफल संभावना बची हुई है। अनिल अनूप की इस पुस्तक को इन संदर्भों के साथ पढ़ने पर यह पुस्तक उन के सरोकारों के गहरे अर्थ खोलेगी।

  • av Rajeev Kejriwal
    145

  • av Ranjana Verma
    202,-

  • av Ajad Anand
    134

  • av Ranjana Verma
    181,-

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