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Devnagari Jagat Ki Drishya Sanskriti

Om Devnagari Jagat Ki Drishya Sanskriti

उत्तर भारतीय समाज और इसकी जन-संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित प्रस्तुत निबन्धों के फलक को जोडऩे का तार यदि कुछ है तो वह है इस इलाक़े की आम फ़हम संस्कृति। मेरा मानना है कि जिन शर्तों पर अधिकांश विद्वान् 'जन' और 'लोक' संस्कृति में फ़र्क़ करते रहे हैं, जिस प्रकार लोक संस्कृति को शुद्धतावादी नज़रिये से देखा जाता रहा है वह आज के समय में अपने आप में भ्रामक और आरोपित होगा। लोक और जन आज के परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे से घुले-मिले हैं। तमाम आक्रामकता और समकालीन संश्लिष्टता के बावजूद लोक की अपनी थाती है और इसका पसारा है। इसे किसी भी शर्त पर नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। मेरा सीमित उद्देश्य पदों के शुद्धतावादी आग्रहों पर प्रश्नचिह्न लगाने का है। मेरे लिए लोक और जन में अन्तर कर पाना न नहीं है और यदा-कदा सहूलियत के लिए मैंने यद्यपि जन-संस्कृति का प्रयोग किया है लेकिन मेरा आशय दरअसल दैनिक जीवन में रची-बसी कभी शोर-शराबे के साथ कभी चुपचाप सँवरती उन अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से है जिन्हें किसी एक ठौर पर रखकर व्याख्यायित करना मुश्किल होता है। भाषा, साहित्य, शहरी अनुभवों और इतिहास की भागीदारी लिये हुए इन प्रक्रियाओं के मिले-जुले तार, हमें इन निबन्धों में देखने को मिलें, यह मेरा उद्देश्य है। इन निबन्धों के ज़रिये मेरी इच्छा है कि पाठक को यह भान भी हो कि जिन प्रक्रियाओं और अनुभवों की बात मैं यहाँ कर रहा हूँ उन्हें समाज-विज्ञान के कई मान्य और प्रचलित पूर्व-निर्धारित खाँचों के ज़रिये समझने से बात शायद पूरी तो हो जाय लेकिन उस पूरे होने के प्रयास में, समग्र सोच पाने की आकांक्षा में, व्याख्या का आकाश खुलने के बजाय सिकुड़ ही न जाय। यदि ईमानदारी से कहा जाय तो पाठकों के साथ यह अपने अनुभव को साझा करने जैसा है। -सदन झा (भूमिका से) ''हिन्दी में सभ्यता

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  • Språk:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9789388183918
  • Bindende:
  • Hardback
  • Sider:
  • 208
  • Utgitt:
  • 1. januar 2018
  • Dimensjoner:
  • 140x16x216 mm.
  • Vekt:
  • 413 g.
  • BLACK NOVEMBER
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Beskrivelse av Devnagari Jagat Ki Drishya Sanskriti

उत्तर भारतीय समाज और इसकी जन-संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित प्रस्तुत निबन्धों के फलक को जोडऩे का तार यदि कुछ है तो वह है इस इलाक़े की आम फ़हम संस्कृति। मेरा मानना है कि जिन शर्तों पर अधिकांश विद्वान् 'जन' और 'लोक' संस्कृति में फ़र्क़ करते रहे हैं, जिस प्रकार लोक संस्कृति को शुद्धतावादी नज़रिये से देखा जाता रहा है वह आज के समय में अपने आप में भ्रामक और आरोपित होगा। लोक और जन आज के परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे से घुले-मिले हैं। तमाम आक्रामकता और समकालीन संश्लिष्टता के बावजूद लोक की अपनी थाती है और इसका पसारा है। इसे किसी भी शर्त पर नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। मेरा सीमित उद्देश्य पदों के शुद्धतावादी आग्रहों पर प्रश्नचिह्न लगाने का है। मेरे लिए लोक और जन में अन्तर कर पाना न नहीं है और यदा-कदा सहूलियत के लिए मैंने यद्यपि जन-संस्कृति का प्रयोग किया है लेकिन मेरा आशय दरअसल दैनिक जीवन में रची-बसी कभी शोर-शराबे के साथ कभी चुपचाप सँवरती उन अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से है जिन्हें किसी एक ठौर पर रखकर व्याख्यायित करना मुश्किल होता है। भाषा, साहित्य, शहरी अनुभवों और इतिहास की भागीदारी लिये हुए इन प्रक्रियाओं के मिले-जुले तार, हमें इन निबन्धों में देखने को मिलें, यह मेरा उद्देश्य है। इन निबन्धों के ज़रिये मेरी इच्छा है कि पाठक को यह भान भी हो कि जिन प्रक्रियाओं और अनुभवों की बात मैं यहाँ कर रहा हूँ उन्हें समाज-विज्ञान के कई मान्य और प्रचलित पूर्व-निर्धारित खाँचों के ज़रिये समझने से बात शायद पूरी तो हो जाय लेकिन उस पूरे होने के प्रयास में, समग्र सोच पाने की आकांक्षा में, व्याख्या का आकाश खुलने के बजाय सिकुड़ ही न जाय। यदि ईमानदारी से कहा जाय तो पाठकों के साथ यह अपने अनुभव को साझा करने जैसा है। -सदन झा (भूमिका से) ''हिन्दी में सभ्यता

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