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This volume explores ideas of home, belonging and memory in migration through the social realities of leaving and living. It discusses themes and issues such as locating migrant subjectivities and belonging; sociability and wellbeing; the making of a village; bondage and seasonality; dislocation and domestic labour; women and work; gender and religion; Bhojpuri folksongs; folk music; experience; and the city to analyse the social and cultural dynamics of internal migration in India in historical perspectives. Departing from the dominant understanding of migration as an aberration impelled by economic factors, the book focuses on the centrality of migration in the making of society. Based on case studies from an array of geo-cultural regions from across India, the volume views migrants as active agents with their own determinations of selfhood and location.Part of the series Migrations in South Asia, this book will be useful to scholars and researchers of migration studies, refugee studies, gender studies, development studies, social work, political economy, social history, political studies, social and cultural anthropology, exclusion studies, sociology, and South Asian Studies.
उत्तर भारतीय समाज और इसकी जन-संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित प्रस्तुत निबन्धों के फलक को जोडऩे का तार यदि कुछ है तो वह है इस इलाक़े की आम फ़हम संस्कृति। मेरा मानना है कि जिन शर्तों पर अधिकांश विद्वान् 'जन' और 'लोक' संस्कृति में फ़र्क़ करते रहे हैं, जिस प्रकार लोक संस्कृति को शुद्धतावादी नज़रिये से देखा जाता रहा है वह आज के समय में अपने आप में भ्रामक और आरोपित होगा। लोक और जन आज के परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे से घुले-मिले हैं। तमाम आक्रामकता और समकालीन संश्लिष्टता के बावजूद लोक की अपनी थाती है और इसका पसारा है। इसे किसी भी शर्त पर नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। मेरा सीमित उद्देश्य पदों के शुद्धतावादी आग्रहों पर प्रश्नचिह्न लगाने का है। मेरे लिए लोक और जन में अन्तर कर पाना न नहीं है और यदा-कदा सहूलियत के लिए मैंने यद्यपि जन-संस्कृति का प्रयोग किया है लेकिन मेरा आशय दरअसल दैनिक जीवन में रची-बसी कभी शोर-शराबे के साथ कभी चुपचाप सँवरती उन अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से है जिन्हें किसी एक ठौर पर रखकर व्याख्यायित करना मुश्किल होता है। भाषा, साहित्य, शहरी अनुभवों और इतिहास की भागीदारी लिये हुए इन प्रक्रियाओं के मिले-जुले तार, हमें इन निबन्धों में देखने को मिलें, यह मेरा उद्देश्य है। इन निबन्धों के ज़रिये मेरी इच्छा है कि पाठक को यह भान भी हो कि जिन प्रक्रियाओं और अनुभवों की बात मैं यहाँ कर रहा हूँ उन्हें समाज-विज्ञान के कई मान्य और प्रचलित पूर्व-निर्धारित खाँचों के ज़रिये समझने से बात शायद पूरी तो हो जाय लेकिन उस पूरे होने के प्रयास में, समग्र सोच पाने की आकांक्षा में, व्याख्या का आकाश खुलने के बजाय सिकुड़ ही न जाय। यदि ईमानदारी से कहा जाय तो पाठकों के साथ यह अपने अनुभव को साझा करने जैसा है। -सदन झा (भूमिका से) ''हिन्दी में सभ्यता
This book examines urban experience from the vantage point of the global South. Drawing upon narratives coming from three key axes - communities, neighbourhoods, and market-places - it lays bare the specificities of urban experience coming from a non-megacity landscape of South Asia.
This book studies the politics that make the tricolour flag possibly the most revered of the symbols, icons and markers associated with nation and nationalism in twentieth-century India. The emphasis on the flag as a visual symbol aims to question certain dominant assumptions about visuality. Anchored on Mahatma Gandhi's 'believing eye', this study reveals specificities of visual experience in the South Asian milieu. The account begins with a survey of the pre-colonial period, focuses on colonial lives of the flag, and then moves ahead to explain the contemporary dynamics of seeing the flag in India. The Flag Satyagraha of Jubblepore and Nagpur in 1922-23, the adoption of the Congress Flag in 1931, the resolution for the future flag in the Constituent Assembly of India in 1947, the history of the colour saffron, and the codes governing the flag, as well as legal cases, are all explored in depth in this book.
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