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Marfat Dilli

Om Marfat Dilli

दिल्ली से कृष्णा सोबती का रिश्ता बचपन से है। आज़ादी से पूर्व उनका वेतनभोगी परिवार साल के छह माह शिमला और छह माह दिल्ली में निवास करता था। अपने किशोर दिनों में वे दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हॉकी खेलती रही हैं। बँटवारे के बाद लाहौर से आकर वे स्थायी तौर पर दिल्ली की हो गईं। दिल्ली का नागरिक होने पर उन्हें गर्व भी है और इस शहर से प्रेम भी। यहाँ के इतिहास और भूगोल को वे बहुत गहरे से जानती रही हैं। दिल्ली के तीन सौ से ज़्यादा गाँवों को और उनके बदलने की प्रक्रिया को उन्होंने पारिवारिक भाव से देखा है। हर गाँव को उन्होंने पैदल घूमा है। 'मार्फत दिल्ली' में उन्होंने आज़ादी बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है। यह वह समय था जब ब्रिटिश सरकार के पराये अनुशासन से निकलकर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी जीवन-शैली के बीच कुछ नया गढ़ रही थी। सडक़ों पर शरणार्थियों की चोट खाई टोलियाँ अपने लिए छत और रोज़ी-रोटी तलाशती घूमती थीं। और देश की नई-नई सरकार अपनी जि़म्मेदारियों से दो-चार हो रही थी। उस विराट परिदृश्य में साहित्य समाज भी नई आँखों से देश और दुनिया को देख रहा था। लेखकों-कवियों की एक नई पीढ़ी उभर रही थी। लोग मिलते थे। बैठते थे। बहस करते थे और अपने रचनात्मक दायित्वों को ताज़ा बनाए रखते थे। बैठने-बतियाने की जगहें, काफी हाउस और रेस्तराँ साथियों की-सी भूमिका निभाते थे। मंडी हाउस और कनाट प्लेस नए विचारों और विचारधाराओं की ऊष्मा का प्रसार करते थे। कृष्णा जी ने उस पूरे समय को सघन नागरिक भाव से जिया। भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं को उन्होंने उनके बीच खड़े होकर देखा। आज़ादी के पहले उत्सव का उल्लास और उसमें तैरती विभाजन की सिसकियों को उन्होंने छूकर महसूस किया। बापू की अन्तिम यात्रा में लाखों आ

Vis mer
  • Språk:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9789387462489
  • Bindende:
  • Hardback
  • Sider:
  • 138
  • Utgitt:
  • 1 januar 2018
  • Dimensjoner:
  • 152x11x229 mm.
  • Vekt:
  • 376 g.
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Beskrivelse av Marfat Dilli

दिल्ली से कृष्णा सोबती का रिश्ता बचपन से है। आज़ादी से पूर्व उनका वेतनभोगी परिवार साल के छह माह शिमला और छह माह दिल्ली में निवास करता था। अपने किशोर दिनों में वे दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हॉकी खेलती रही हैं। बँटवारे के बाद लाहौर से आकर वे स्थायी तौर पर दिल्ली की हो गईं। दिल्ली का नागरिक होने पर उन्हें गर्व भी है और इस शहर से प्रेम भी। यहाँ के इतिहास और भूगोल को वे बहुत गहरे से जानती रही हैं। दिल्ली के तीन सौ से ज़्यादा गाँवों को और उनके बदलने की प्रक्रिया को उन्होंने पारिवारिक भाव से देखा है। हर गाँव को उन्होंने पैदल घूमा है। 'मार्फत दिल्ली' में उन्होंने आज़ादी बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है। यह वह समय था जब ब्रिटिश सरकार के पराये अनुशासन से निकलकर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी जीवन-शैली के बीच कुछ नया गढ़ रही थी। सडक़ों पर शरणार्थियों की चोट खाई टोलियाँ अपने लिए छत और रोज़ी-रोटी तलाशती घूमती थीं। और देश की नई-नई सरकार अपनी जि़म्मेदारियों से दो-चार हो रही थी। उस विराट परिदृश्य में साहित्य समाज भी नई आँखों से देश और दुनिया को देख रहा था। लेखकों-कवियों की एक नई पीढ़ी उभर रही थी। लोग मिलते थे। बैठते थे। बहस करते थे और अपने रचनात्मक दायित्वों को ताज़ा बनाए रखते थे। बैठने-बतियाने की जगहें, काफी हाउस और रेस्तराँ साथियों की-सी भूमिका निभाते थे। मंडी हाउस और कनाट प्लेस नए विचारों और विचारधाराओं की ऊष्मा का प्रसार करते थे। कृष्णा जी ने उस पूरे समय को सघन नागरिक भाव से जिया। भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं को उन्होंने उनके बीच खड़े होकर देखा। आज़ादी के पहले उत्सव का उल्लास और उसमें तैरती विभाजन की सिसकियों को उन्होंने छूकर महसूस किया। बापू की अन्तिम यात्रा में लाखों आ

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